Friday 4 May, 2018

ग़ज़ल

(साभार:वेब)

जाने कैसी-कैसी बातों में गए,
लोग मज़हबी छलावों में गए।

रूह में झांकने का तो है वक्त कहां
नादां लिबास के दिखावों में गए।

मुहब्बत के पैगाम रुके कहां हैं शेख
देखिए ये ख़त किताबों में गए

इस दौर के बयानों की क्या कहें
दिए नहीं जो; रिसालों में गए

ऐसी अदा से देखा सवाल खो गए
जवाब सारे उन निगाहों में गए

-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया

4/05/2018
9:28 AM

Sunday 24 August, 2014

गज़ल

तेरे आसरे पे जिए जा रहा हूं
ज़हर ज़िंदगी का पिए जा रहा हूं

मुझे ज़िंदगी से अदावत नहीं है
समझौता गम से किए जा रहा हूं

तेरी चश्मे-पुरनम बता ये रही हैं
कोई दुखती रग मैं छुए जा रहा हूं

रुसवा कहीं कोई कर दे ना तुझको
हर इल्ज़ाम सर पे लिए जा रहा हूं


-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया

गज़ल

पहले मुफ़लिस बनाया गया
फिर गले से लगाया गया

पहले नश्तर चुभाए हमें
फिर मरहम लगाया गया

दाग छुप गए उनके सभी
ऐसे दामन दिखाया गया

खूं किया कौम ने कौम का
एक हैं सब सिखाया गया

चंद सांसे बचीं बाकी हैं
हाल अच्छा बताया गया

-हेमन्त रिछारिया

गज़ल

हस्ती भले मिट जाए जहां से
याद रहें हम अपने निशां से

शाख से टूटें पर ना बिखरें
महकें सदा गुलशन की फ़ज़ां से

याद हमारी यूं हो दिल में
जैसे रोशन महफ़िल हो शमां से

ऐसे जनाज़ा निकले अपना
जैसे विदा हो डोली मकां से

-हेमन्त रिछारिया

गज़ल


हम क्या लाए थे; क्या हमारा था
बेखुदी का ये सब नज़ारा था

किसने सोचा था तकदीर रूठ जाएगी
कश्ती डूबी थी जहां पास में किनारा था

फिर से रौंदा गुल को ज़ालिम ने
अपने हाथों से मैंने इसे संवारा था

बस यही सोच के बंद कर ली आंखें
बिन तेरे जीना किसे गवारा था

-हेमन्त रिछारिया

Sunday 10 August, 2014

ग़ज़ल

तेरे बगैर एक पल सुकूं से नहीं गुज़रा
मैं जिस आज़ाब से गुज़रा;तू नहीं गुज़रा

तेरे इंतज़ार में गुज़ार दी ज़िंदगी मैंने
मैं दर पे मुंतज़िर रहा तू नहीं गुज़रा

बड़ी मुख़्तलिफ़ सी रहगुज़र है तेरी मुझसे
मेरी तरह दिल की राहों से तू नहीं गुज़रा

फूल कदमों तले आया मुझे रुकना ही पड़ा
जानिबे-मंज़िल रुक-रुक के तू नहीं गुज़रा

चांदनी में बना तू हमसफ़र मेरा लेकिन
कभी धूप में मेरे साथ तू नहीं गुज़रा

दिले-बोसीदा,चश्मे-पुरनम,आबला-ए-पा
मरासिमों के दश्त-औ-सहरा से तू नहीं गुज़रा

-हेमन्त रिछारिया

Sunday 27 July, 2014

अर्ज़ किया है...

“मासूम हाथों से निवाला खा लिया
 रोज़ा टूटा; मगर दिल बचा लिया”

“तुम चाहे मुहब्बत कह लो इसे
 आदत हो गई है तुम्हारी मुझे”

“ना जाने कैसा रिश्ता है तेरा मुझसे
 नामुकम्मल लगती है ज़िंदगी तेरे बगैर”

“अपने हाथों से जब वो इफ़्तार कराता है
 कौन है जो मुंह से निवाला छीन ले”

“जंग ऐसी भी हुई हैं ज़िंदगी में उनसे
 हार से मेरी उनकी जीत शर्मसार है”

“मेरी आंखों में तो आए नहीं कभी
 सुना है खुशी के आंसू भी होते हैं”

“मरासिम हैं या तेरी ज़ुल्फ़ों के पेंच-औ-खम
 जितना सुलझाऊं; उलझते ही जाते हैं”

"सर्द होते जा रहे हैं रिश्ते सारे
 आओ प्यार बुने कि गर्माहट हो"

किया है तंग "काफ़िया" ज़िन्दगी ने
"रदीफ़" लाख सम्भालें शेर नहीं बनता


-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया